प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- प्राचीन भारत में विवाह के अर्थ तथा उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए तथा प्राचीन भारतीय विवाह एक धार्मिक संस्कार है। इस कथन पर भी प्रकाश डालिए।
अथवा
हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है न कि सामाजिक अनुबन्ध। स्पष्ट कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. विवाह के धार्मिक उद्देश्य क्या हैं?
2. हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
विवाह का अर्थ
भारतीय हिन्दुओं के विवाह का अर्थ मानव जीवन के पुरुषार्थ को पूर्ण करता है। भारतीय विवाह किसी भी प्रकार का समझौता मात्र नहीं है। यह एक तरह का धार्मिक संस्कार है।
हिन्दू विवाह के उद्देश्य तथा आदर्श के बारे में धर्मशास्त्रों द्वारा अनेक मतों की प्रतिस्थापना की गयी है। ऋग्वेद के अनुसार विवाह का उद्देश्य, गृहस्थ होकर देवों के लिए यज्ञ करना तथा सन्तान उत्पन्न करना है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार पति-पत्नी के गर्भ में पुत्र के रूप में जन्म लेता है। इस कारण स्त्री को 'जाया' कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार व्यक्ति तब तक अपूर्ण है जब तक कि विवाह करके सन्तान को जन्म नहीं देता। इसी कारण पत्नी को 'अर्धांगिनी' कहा गया है।
विवाह के प्रमुख उद्देश्य - ऋग्वेद में विवाह के उद्देश्य की झलक सर्वप्रथम हमें देखने को मिलती है, इस प्राचीनतम वेद के अनुसार गृहस्थ जीवन में प्रवेश करके देवताओं को खुश करने हेतु यज्ञ करना और वंश वृद्धि करना है। ऐतरेय ब्राह्मण में पत्नी को जाया भी कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार " पत्नी अपने पति की अर्धांगिनी है तथा विवाह के बिना पुरुष का जीवन अपूर्ण है। मनुस्मृति में विवाह के उद्देश्य बड़े स्पष्ट रूप से देखने को मिलते हैं। इस ग्रन्थ के अनुसार “धर्म सेना, स्वर्ग प्राप्ति, आनन्द तथा जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति पत्नी पर निर्भर है। आपस्तम्भ धर्मसूत्र के अनुसार, “विवाह द्वारा मनुष्य में धार्मिक अनुष्ठानों को करने योग्य बनता है तथा अविवाहित पुरुष अपूर्ण रहता है। अतः संतान धारण, धार्मिक आचारों का पालन, सेवा, श्रेष्ठ आनन्द एवं स्वर्ग की प्राप्ति के लिए विवाह आवश्यक है। विद्वानों ने विवाह के तीन उद्देश्य स्वीकार किये हैं-
धर्म - अपने धर्म के अनुसार पुरुष अपने धार्मिक उद्देश्यों को बिना किसी के हस्तक्षेप से शान्तिपूर्वक ढंग से प्राप्त करता है। अयज्ञियों तथा योः अपत्नीकः यह सर्वोत्कृष्ट कक्ष है।
हिन्दू विवाह का प्रमुख उद्देश्य धर्म है प्रत्येक मनुष्य का अपने जीवन के कुछ कर्त्तव्य है और इन कर्त्तव्यों को उचित ढंग से प्रतिपादित करने के लिए पत्नी की व्यवस्था करता है। पत्नी के बिना ये कार्य पूरे नहीं किये जा सकते। इन कर्त्तव्यों को यज्ञ कहा गया है। हिन्दू विवाह को इसलिए एक धार्मिक कृत्य समझा जाता है क्योंकि यह तभी पूर्ण समझा जाता है जब कुछ पवित्र मंत्रों के द्वारा किन्हीं रीतियों का पालन किया जाये। ऋग्वेद के अनुसार विवाह का आदर्श गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर देवताओं के लिए यज्ञ करना और सन्तान उत्पन्न करना है। 'आपस्तंब धर्मसूत्र' के अनुसार विवाह के द्वारा ही मनुष्य धार्मिक अनुष्ठानों के योग्य बनता है क्योंकि कि अविवाहित पुरुष अपूर्ण रहता है। विवाह के द्वारा ही मनुष्य को पुत्र प्राप्ति हो सकती है जो उसे नरक से बचाता है मनु का मत है कि सन्तान धारण, धार्मिक आचारों का पालन सेवा, श्रेष्ठ आनन्द और स्वर्ग की प्राप्ति स्त्री के बिना संभव नहीं, अतः विवाह आवश्यक है।
वंश वृद्धि - यह विवाह का द्वितीय प्रमुख उद्देश्य है। संतान की प्राप्ति से वंश वृद्धि होती है। मनु का कथन है- “केवल वही व्यक्ति पूर्ण कहलाने योग्य है जिसके पास संतान है। प्रजातंतु गात्यवच्छेत्सि।
हिन्दू विवाह का उद्देश्य सन्तति उत्पन्न करना है। पुत्र उत्पन्न करना हिन्दू विचारधारा के अनुसार अति आवश्यक है। मनुसंहिता और महाभारत में दी गयी व्यवस्था के अनुसार पुत्र का अर्थ नरक (पुम) में जाने से पिता की रक्षा करने वाला। पुत्र की प्राप्ती और प्रजनन क्रिया को यौन सन्तुष्टि का परिणाम न मान कर उसे धर्म साधन कहा गया है, जिसके कारण मनुष्य को विवाह में यौन सन्तुष्टि से ऊपर उठने की प्रेरणा मिलती है। वास्तव में विवाह का मुख्य आदर्श है। धर्म पालन क्योंकि प्रजा और रति भी धर्म पालन के अंग हैं। मनु के अनुसार पुत्र प्राप्ति (Progeny ) इस संसार और अपने संसार दोनों के सुख का साधन समझ गया है। मनु ने लिखा है कि “केवल वह व्यक्ति ही पूर्ण व्यक्ति कहलाने योग्य है जिसके पास पत्नी और बच्चे हैं। अतएव प्रत्येक हिन्दू के लिए 'विवाह' करना अनिवार्य माना गया है। विवाह अपने तथा पूर्वजों के प्रति एक कर्त्तव्य है।
रति - यह विवाह का तीसरा मुख्य उद्देश्य कहलाता है। “रति का अर्थ है समागम द्वारा आनन्द प्राप्त करना। भारतीय विवाह में रति का योग स्थान माना गया है इसका मुख्य उद्देश्य संतान प्राप्ति के लिए ही रति क्रिया करना है। हिन्दू शास्त्रों के दृष्टिकोण के अनुसार 'केवल शूद्र का विवाह रति क्रिया से केवल आनन्द प्राप्त करने के लिए होता था। यह विवाह का निकृष्ट उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि हिन्दू विवाह का मुख्य उद्देश्य धार्मिक ही रहा है। श्री के० एन० कपाड़िया ने अपनी पुस्तक 'भारत में विवाह और परिवार (Marriage And Family in India ) में हिन्दू विवाह के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “हिन्दू विवाह के उद्देश्य धर्म पूजा तथा रति बतलाये गये हैं। जबकि काम या यौन सम्बन्ध विवाह का एक कार्य है। लेकिन इसको तीसरा स्थान दिया गया है।" इससे यह स्पष्ट है कि यह विवाह का अत्यन्त कम वांछनीय उद्देश्य है। विवाह में यौन संबंध की निरन्तर भूमिका पर बल देने के लिए ही यह कहा गया है कि शुद्र का विवाह केवल यौन सम्बन्ध के लिए होता है।
प्राचीन भारतीय हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है - प्राचीन भारत में विवाह के प्रमुख गुण या विशेषताएँ थीं जो निम्नलिखित हैं-
1. हिन्दू विवाह का सम्बन्ध धर्म तथा पवित्रता से था।
2. जीवन में प्रचलित अनेक संस्कारों में विवाह भी एक प्रकार का संस्कार माना गया था।
एक विद्वान के शब्दों में इन विशेषताओं या गुणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विवाह एक धर्म प्रधान प्रक्रिया है। अतः इसमें धार्मिक बन्धन है न कि सामाजिक समझौता। इस विवाह से पति-पत्नी एक धार्मिक बन्धन के द्वारा अग्नि के सामने देवताओं को साक्षी बनाकर पुरोहित के द्वारा शास्त्र मंत्रों के साथ परस्पर एक आमरण बन्धन में बंध जाते थे। इसी के कारण हिन्दू विवाह में तलाक की प्रथा (विधान) साधारणतया नहीं है इसी से अविवाहित पुरुष को अयोग्य बताया है।
विद्वान के इस कथन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विवाह स्त्री तथा पुरुष में समझौता न होकर पवित्र संस्कार है क्योंकि विवाह का उद्देश्य जीवन को परिष्कृत रूप देने हेतु संपूर्ण जीवन की तरफ ले जाना है ताकि वे मोक्ष की प्राप्ति सरलतापूर्वक कर सकें। महाभारत में अविवाहित कन्याओं तथा नारद मुनि के बीच वार्तालाप से पता चलता है कि मोक्ष प्राप्त करने हेतु उन्हें संन्यास लेने के पश्चात् भी पुनः विवाह करके गृहस्थ बनना पड़ा था। अतः विवाह इस कारण धार्मिक संस्कार थे कि उनका संपादन अनेक क्रियाओं के द्वारा होता था उसमें हवन, पाणिग्रहण पवित्र अग्नि को साक्षी एवं संपदा आदि प्रमुख थे। जब तक ये समस्त क्रियायें पूर्ण रूप से पूरी नहीं होती थी। हिन्दू धर्म के अनुसार विवाह पूर्ण नहीं समझा जाता था। प्राचीन भारत के विवाहों में कुछ ऐसे निम्न कारक थे, जिनके आधार पर उसे धार्मिक संस्कार कहा गया है-
1. हिन्दू विवाह को धार्मिक संस्कार कहने का प्रथम कारण यह है कि उसका प्राथमिक उद्देश्य धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन करना है। इन धार्मिक कर्त्तव्यों में यज्ञ का सर्वश्रेष्ठ स्थान बताया जाता है। यज्ञ के समय पति के साथ बैठने का अधिकार केवल पत्नी को है, इसीलिए तो उसको हिन्दू धर्मशास्त्रों में सहधर्मिणी का नाम दिया गया है।
2. हिन्दू विवाह को धार्मिक संस्कार कहने का दूसरा कारण यह है कि विवाह ईश्वरीय इच्छा प्रतीत होती है। क्योंकि जोड़ा (पति-पत्नी) ईश्वर ही ने बनाया है उसने मनुष्य को इस प्रकार का अधिकार नहीं दिया।
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